Menaka - 1 in Hindi Fiction Stories by Raj Phulware books and stories PDF | मेनका - भाग 1

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मेनका - भाग 1


🌾 मेनका भाग 1 

✍️ लेखक: राज फुलवरे


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अध्याय 1 — रामगढ़ में मेनका का आगमन

सुबह की धूप अभी-अभी पहाड़ियों के पीछे से झाँकने लगी थी।
रामगढ़ गाँव की मिट्टी से उठती हल्की भाप, खपरैल के घरों की छतों से टपकती ओस की बूंदें, और कहीं दूर बैलों की घंटियों की आवाज़ — ये सब मिलकर उस गाँव की पहचान बनाते थे।

गाँव छोटा था, पर लोग मेहनती और सरल थे।
यहाँ हर कोई एक-दूसरे को जानता था, और किसी अजनबी का आना पूरे गाँव के लिए चर्चा बन जाता था।
पर आज जो आने वाली थी, वो सिर्फ “अजनबी” नहीं थी — वो एक रहस्य थी।

गाँव की चौपाल पर बैठे बुजुर्ग आपस में गपशप कर रहे थे कि तभी धूल उड़ाती एक बग्घी गाँव के रास्ते पर दिखाई दी।
उस बग्घी में बैठी एक औरत — उम्र करीब पच्चीस से तीस के बीच — पर उसकी चाल-ढाल में कुछ ऐसा था कि देखने वाला नज़रें हटाना भूल जाता।
उसके चेहरे पर न तो घूंघट था, न शर्म।
हल्की लाल साड़ी, माथे पर बिंदी, और आँखों में ऐसा आत्मविश्वास मानो पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में हो।

गाँव की औरतें खिड़कियों से झाँक रही थीं।
कोई धीरे से बोली,

> “अरे, ये कौन बाई है रे, किती सुंदर दिसते!”



दूसरी ने मुँह बनाते हुए कहा,

> “सुंदर असली असते तर नाय रे, कपड्यांनी बनवलीय सुंदरता. बघ ना, अंगावर सोनं लटकवलंय जणू बाजारात विकायला निघालीये.”



पुरुष भी अपनी मेहनत का काम छोड़कर बग्घी की ओर देखने लगे।
चौपाल पर बैठे गणपत काका बोले,

> “लगता है कोई शहर की है। इतना गहना-पैना पहनकर यहाँ कौन आता है?”



तभी किसी ने बताया —

> “अरे, सुना है सरपंच बलवंतराव ने ही बुलाया है इसे!”



ये सुनते ही चौपाल पर सन्नाटा छा गया।
बलवंतराव इस गाँव के सबसे रसूखदार आदमी थे —
धनवान, पर चालाक; जनता में इज्जतदार, पर अंदर से लालची।
गाँव में उनका नाम कानून से भी बड़ा था।


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मेनका का पहला कदम

बग्घी रुकी, और वह औरत उतरी — मेनका।
धरती पर जैसे बिजली गिर गई।
उसने धीरे से साड़ी का पल्लू संभाला, और चारों ओर नजर दौड़ाई।
हर आदमी उसे देख रहा था, हर औरत उससे आँखें चुरा रही थी।

> “रामगढ़...” — उसने धीरे से कहा, जैसे इस नाम का स्वाद अपने होंठों पर महसूस कर रही हो।



उसके साथ दो आदमी थे — एक बूढ़ा नौकर और एक नौजवान ड्राइवर।
दोनों ने उसके पीछे सामान उतारा — चार बड़े-बड़े बक्से, जिन पर अंग्रेज़ी में “M” अक्षर खुदा था।

वो सीधे सरपंच के घर की ओर बढ़ी।
रास्ते में बच्चे उसे देखते रहे, और कुछ औरतें कानों में फुसफुसाईं —

> “कौन है ये, शहर से आई है क्या?”
“कहते हैं व्यापार करती है, लोगों को धन कमाने के उपाय बताती है।”



पर कोई नहीं जानता था कि असल में मेनका क्या करती है।
उसका असली कारोबार “दिलों को लूटना” था —
कभी प्यार से, कभी छल से।


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बलवंतराव से पहली मुलाक़ात

बलवंतराव के घर में पहले से तैयारी थी।
उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई ने नौकरों को कह रखा था —

> “जो भी आए, पहले साफ-सफाई देखकर जाना चाहिए। मेहमान शहर से आ रही है।”



जब मेनका अंदर आई, बलवंतराव खुद दरवाज़े पर खड़े थे।

> “स्वागत है, स्वागत है मेनकाबाई! आखिर आप आ ही गईं रामगढ़ में।”



मेनका ने मुस्कुराकर कहा,

> “आपने बुलाया था, बलवंतरावजी… मैं भला मना कैसे करती?”



बलवंतराव ने उसकी आँखों में देखा।
उस मुस्कान में एक आग थी — जो किसी भी आदमी को अपने वश में कर सकती थी।

थोड़ी देर बाद दोनों अंदर कमरे में गए।
दरवाज़ा बंद हुआ, और बातचीत शुरू हुई।

> “सब ठीक रहा यात्रा में?” — बलवंतराव ने पूछा।
“हम्म… रास्ता लंबा था, मगर मंज़िल सुंदर है।”



> “गाँव छोटा है, पर लोग भले हैं।”
“मुझे लोगों की भलमनसाहत नहीं चाहिए, बलवंतरावजी,” मेनका ने मुस्कराते हुए कहा,
“मुझे चाहिए धन — और उसके लिए आप जैसे साथी।”



बलवंतराव थोड़ा चौंके,

> “तो आप खुलकर बोलती हैं!”



> “मैं हर काम खुलकर करती हूँ।”



फिर उसने धीरे से कहा —

> “हमारा सौदा तय है ना? जो भी मिलेगा, आधा-आधा?”



> “हाँ हाँ, बिल्कुल,” बलवंतराव बोले,
“बस ध्यान रहे, किसी को भनक न लगे।”



मेनका हँसी,

> “भनक लगने से पहले ही मैं हवा बनकर गायब हो जाऊँगी।”




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गाँव में हलचल

उस शाम जब सूरज ढलने लगा, मेनका बलवंतराव के साथ चौपाल तक गई।
लोग इकट्ठे थे, और बलवंतराव ने कहा,

> “गाँव में अब नए काम शुरू होंगे। मेनकाबाई हमें बतायेंगी कि पैसा कैसे बढ़ाना है, घर कैसे संभालना है।”



लोग तालियाँ बजाने लगे।
औरतों ने सोचा — शायद ये कोई समाजसेविका है।
पुरुषों ने सोचा — शायद धन कमाने का नया उपाय मिलेगा।

मगर मेनका की नजरें सिर्फ उन पर थीं जिनके पास “धन” था।
वो मुस्कराकर बोली,

> “मैं जहाँ जाती हूँ, वहाँ किस्मत बदल जाती है।”



गाँव में जैसे आग फैल गई —
हर कोई कहने लगा,

> “मेनकाबाई आई हैं, अब हमारे दिन फिरेंगे।”



लेकिन किसी को नहीं पता था कि उनके घरों में अब “लूट” का मौसम आने वाला है।


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रात का रहस्य

रात को बलवंतराव के घर में दीप जल रहे थे।
मेनका अपनी खिड़की से बाहर देख रही थी।
गाँव का सन्नाटा, और दूर तालाब के किनारे जलते दीयों की परछाईं —
सब कुछ उसे अपने अगले कदम की योजना बताने जैसा लग रहा था।

उसने धीरे से अपनी बग्घी से एक छोटा संदूक निकाला —
उसमें कई रसीदें, कुछ नकली दस्तावेज़ और एक छोटा-सा बहीखाता था।
हर पन्ने पर एक नाम लिखा था —
“देवराम”, “श्यामू”, “लखन”, “राजू”…
गाँव के अमीर आदमी, जिनकी कमाई उसने अभी तक नहीं छीनी थी।

वो बोली,

> “अब खेल शुरू होता है।”



उसकी आँखों में वही चमक थी,
जो किसी जंग के पहले योद्धा के चेहरे पर होती है।


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सुबह की शुरुआत, नए शिकार की खोज

अगली सुबह जब गाँव जागा, मेनका पहले से ही चौपाल पर थी।
उसने औरतों से बातें कीं, बच्चों में मिठाई बाँटी, और फिर धीरे-धीरे मर्दों से दोस्ती बढ़ाई।

किसी को उसने कहा —

> “आपकी मेहनत देखकर लगता है भगवान आपको बहुत देगा।”



किसी से बोली —

> “आपकी आँखों में सच्चाई है।”



धीरे-धीरे पूरा गाँव उसकी बातों में आने लगा।
और बलवंतराव?
वो तो हर शाम उसके साथ बैठकर शराब पीता और हँसता।
दोनों मिलकर तय करते —
आज किसका घर “खुशहाल” बनाना है, यानी किसका पैसा निकलवाना है।


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एक गाँव, दो चेहरे

रामगढ़ के लिए मेनका देवी जैसी बन चुकी थी।
पर उस देवी के पीछे एक राक्षसी योजना छिपी थी।
वो हर घर में रिश्तों की दरार ढूँढ़ती,
और उसी में घुसकर सब कुछ अपना बना लेती।

किसी के पति को प्यार में उलझाती,
किसी के बेटे को “निवेश” के नाम पर ठगती,
और किसी की औरत को “किस्मत बदलने वाले ताबीज़” बेचती।

गाँव की सूरत अब बदलने लगी थी —
जहाँ पहले सादगी थी, वहाँ अब लालच और ईर्ष्या पनप रही थी।

पर मेनका की ये जीत ज़्यादा दिन नहीं टिकने वाली थी…
क्योंकि सरपंच का ही बेटा, यशवंत, शहर से वापस लौटने वाला था —
और उसके लौटते ही इस खेल की दिशा बदलने वाली थी।



अध्याय 2 — बलवंतराव की सौदेबाज़ी

रामगढ़ की सुबह फिर से सुनहरी थी,
लेकिन इस बार सूरज की किरणों से ज़्यादा मेनका की मुस्कान चमक रही थी।
गाँव में उसके आने के बाद से ही एक अलग रौनक फैल गई थी।
जो लोग पहले चौपाल पर सिर्फ खेती और बारिश की बातें करते थे,
अब “मेनकाबाई” की चर्चा करते थे।

> “अरे, मेनकाबाई बोलल्या की आपला व्यापार वाढणार आहे,”
“मेनकाबाईने सांगितलं ना, की सोनं विकत घेऊ नका, जमिनीमध्ये पैसा लावा,”



गाँव के लोग उसकी बातों पर यक़ीन करने लगे थे।
मेनका अब सिर्फ एक औरत नहीं रही — वो एक विचार बन चुकी थी,
जिसने लोगों के मन में पैसा, सुंदरता और शक्ति का नशा भर दिया था।


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बलवंतराव का नया चेहरा

गाँव के सरपंच बलवंतराव पाटील पहले से ही चालाक थे,
पर अब वो चालाकी लालच में बदल चुकी थी।
मेनका ने जैसे उनके अंदर छुपे शैतान को बाहर निकाल दिया था।

उस रात बलवंतराव और मेनका पिछवाड़े के बड़े बरामदे में बैठे थे।
चाँद आसमान में था, और दोनों के बीच शराब का प्याला।

> “बलवंतरावजी,” मेनका ने प्याला उठाते हुए कहा,
“अब वक्त आ गया है कि हम गाँव के धन को गाँव की भलाई के लिए इस्तेमाल करें।”



बलवंतराव ने हँसते हुए कहा,

> “गाँव की भलाई या अपनी?”



मेनका मुस्कुराई — वो वही मुस्कान थी जिसमें छल और आकर्षण दोनों थे।

> “जो हमारी भलाई है, वही तो गाँव की भलाई बनेगी।
आखिर हम भी तो इसी गाँव के शुभचिंतक हैं।”



दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा —
वो नज़रें किसी समझौते की मोहर की तरह थीं।


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सौदे का पहला कदम

कुछ दिनों बाद गाँव में “धन निवेश योजना” का ऐलान हुआ।
बलवंतराव ने चौपाल पर सबको इकट्ठा किया।

> “गाँववाले भाईयों, मेनकाबाई हमें एक सुनहरा मौका दे रही हैं।
जो कोई अपने पैसे इस योजना में लगाएगा, उसे अगले महीने दोगुना धन मिलेगा।”



गाँव के लोग आपस में कानाफूसी करने लगे।
कोई बोला —

> “सच में का?”
दूसरा बोला —
“सरपंच साहेब सांगतायत, म्हणजे खरेच असेल.”



मेनका ने मंच पर खड़ी होकर कहा,

> “आप सब मेरे अपने हैं। मैं किसी से एक रुपया भी नहीं लूँगी अगर भरोसा न हो।
लेकिन जो मुझ पर भरोसा करेगा, उसकी किस्मत मैं खुद बदल दूँगी।”



लोगों के दिलों में उत्साह भर गया।
मेनका का जादू अब शब्दों से बढ़कर असर दिखाने लगा था।

गाँव के सबसे अमीर किसान हरिप्रसाद, व्यापारी धनराज और सुनार मोतीराम ने सबसे पहले पैसा लगाया।
थोड़े ही दिनों में मेनका के पास सोना, नकद और जेवर का अंबार लग गया।


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बलवंतराव की खुशी

रात को जब मेनका ने सोने के बक्से बलवंतराव के सामने खोले,
उनकी आँखें चमक उठीं।

> “अरे बापरे! इतकं सोनं तर मी कधी पाहिलं न्हवतं!”
“अभी तो शुरुआत है, बलवंतरावजी,” मेनका ने कहा,
“रामगढ़ छोटा है, मगर उसके चारों ओर के गाँव — देवगड, सोनपुर, भैरवली — सब जगह हमारी ये योजना पहुँचेगी।”



> “तुम्ही म्हणजे… सगळं ठरवलं आहे आधीच,”
बलवंतराव ने कहा।



> “हाँ,” मेनका बोली,
“मैं जहाँ जाती हूँ, वहाँ किस्मत अपने आप बदल जाती है।
और आपकी किस्मत तो अब मेरे साथ है।”



बलवंतराव ने उसका हाथ पकड़ लिया।

> “तुम्ही खरंच माझं आयुष्य बदललं.”



मेनका ने हल्की हँसी हँसते हुए कहा,

> “अभी तो शुरुआत है, बलवंतरावजी।
असली खेल तो तब शुरू होगा जब लोग हमें भगवान समझने लगेंगे।”




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शिकार का विस्तार

अगले कुछ हफ्तों में मेनका का जादू चारों ओर फैल गया।
लोग अब उसे “मेनका देवी” कहने लगे थे।
वो हर हफ़्ते चौपाल पर आती, लोगों को “धन-सिद्धि” के उपाय बताती।
और जो लोग गरीब थे, उन्हें “सस्ता लोन” दिलाने का झांसा देती।

धीरे-धीरे गाँव के घरों में उसकी पूजा होने लगी।
और बलवंतराव को लगता कि वो इतिहास रच रहे हैं।

पर दोनों के चेहरे पर मुस्कान थी —
एक लूट की, दूसरी नियंत्रण की।

गाँववालों को क्या पता, कि उनकी मेहनत की कमाई अब दो दिलों के खेल में फँस चुकी है।


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बलवंतराव की पत्नी — लक्ष्मीबाई

पर हर कहानी में एक आँख होती है जो सब देखती है।
इस कहानी में वो आँख थी लक्ष्मीबाई, बलवंतराव की पत्नी।
वो चुप रहती थी, पर सब समझती थी।

एक दिन उसने बलवंतराव से कहा,

> “ही बाई कोण आहे? रोज संध्याकाळी तुमच्या खोलीत बसते, आणि तुमचं बोलणंही बदललंय.”



बलवंतराव ने हँसते हुए टाल दिया,

> “अगं, ती व्यापारी बाई आहे, कामाचं बोलणं असतं.”



लक्ष्मीबाई को बात हजम नहीं हुई।
उसने मेनका को चाय देने के बहाने कमरे में झाँका।
वहाँ दोनों के बीच सोने के बक्से और नकद के ढेर पड़े थे।

मेनका ने उसकी तरफ देखा,

> “आइए लक्ष्मीबाई, आप भी साथ बैठिए… आखिर इस घर की मालकिन हैं आप।”



लक्ष्मीबाई ने उसकी आँखों में झाँका —
उसे वही चमक दिखाई दी जो सांप की आँखों में होती है जब वो अपने शिकार को घूरता है।

वो बिना कुछ बोले बाहर चली गई,
पर उसके मन में अब संदेह का बीज बो दिया गया था।


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अंधेरे में सौदे

रात को बलवंतराव और मेनका छत पर बैठे थे।
चारों ओर अंधेरा, हवा में शराब की गंध और साजिश की फुसफुसाहट।

> “कल हम सोनपुर चलेंगे,” मेनका बोली,
“वहाँ के ज़मींदार से मैंने बात कर ली है। वो भी निवेश करना चाहता है।”



> “म्हणजे आपली झोळी भरत चाललीय,” बलवंतराव ने मुस्कराते हुए कहा।
“झोली नहीं बलवंतरावजी,” मेनका बोली,
“इतिहास भर रहा है — हमारा।”



दोनों हँसे, और दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आई।
गाँव की रात गहरी होती जा रही थी —
और उसके साथ बढ़ रहा था लालच का अंधेरा।


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मेनका का रहस्य

पर बलवंतराव नहीं जानते थे कि मेनका हर गाँव में यही करती थी —
वो सरपंचों को फँसाती, लोगों से पैसा उगवाती और फिर अचानक गायब हो जाती।

उसके पीछे रह जाता सिर्फ खाली बक्सा, टूटी उम्मीदें और बदनामी।
उसका नाम — “मेनका” — सुनते ही लोग डरते थे,
क्योंकि वो किसी औरत का नहीं, बल्कि एक लूट का प्रतीक बन चुकी थी।

रामगढ़ अब उसका नया मैदान था —
और बलवंतराव उसका नया मोहरा।


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आने वाले तूफ़ान की आहट

पर इस बार किस्मत मेनका के साथ नहीं रहने वाली थी।
क्योंकि बलवंतराव का बेटा यशवंत शहर से लौटने वाला था —
पढ़ा-लिखा, तेज़, और अपने पिता की चालों से नफ़रत करने वाला।

वो ही वो शख़्स था जो इस खेल में आने वाला तूफ़ान बनने वाला था।

और जब यशवंत लौटेगा,
तब “मेनका का साम्राज्य” पहली बार काँप जाएगा…